अल्हड़ असभ्य इंसान होता है, अल्हड़ नदियां होती हैं, अल्हड़ हवा भी होती है। आपकी स्मृति में किसी और को भी अल्हड़ कहने की लोक परंपरा का ज्ञान हो तो उसे भी इस श्रेणी में रख लें, इसमें कोई आपत्ति नहीं है।
अल्हड़ हवा भी होती है। बसंत की हवा। शीतल, मंद और सुगन्धित गुणों को एक साथ अपने में समाये रखने वाली बसंती हवा को इसीलिए त्रिबिध बयार भी कहते है। बसंत ऋतु की हवा बहुत मादक होती है संभवतः इसी कारण इस ऋतु को ऋतुराज कहते हैं। जैसे राजा अपने प्रभुत्व के मद में होता है वैसे ही मनुष्य भी इस अल्हड़ हवा में मदमस्त होता है। मनुष्य ही क्या समूची सृष्टि ही अल्हड़ हो जाती है। सूरज भी मानो हमारी बसंती हवा खाने के लिए भूमध्यरेखा पार कर हमारे निकट आ जाता है और अपनी किरणों में इतनी ऊर्जा भरता है कि पूरी प्रकृति फूलों और नवपल्लव से लद जाती है। भोर से ही महुआ टपकने लगता है और उसकी खुशबू दूर तक फैलकर प्रत्येक जीव को अपने आगोश में समेटती रहती है। ना जाने कहाँ से आकर भौंरे हर फूल को चूमने लगते हैं। सावन में मेढक की टर्र ध्वनि से डर कर दुबकी कोयल भी आकर भौरों की लय के साथ तान देकर ऐसा संगीत छेड़ती है कि आम भी बौरा जाते हैं। यहाँ गजब की बात यह भी देखिये की आम के बृक्ष में बौर लगना या फूल लगना या आम का बौराना अच्छी बात है लेकिन आम आदमी का बौराना पागलपन कहलाता है। बस ऐसा ही कुछ अल्हड़ शब्द के साथ भी हो गया है।नदी जब शांत या अपनी तुमुल तरंगों के साथ मंद गति से रेखीय प्रवाह में होती है तो उसका जल दर्पण की भांति स्वच्छ होता है ( यहाँ मै प्रदूषित नदियों की बात नहीं कर रहा हूँ ) । वह पशु -पक्षियों के अलावां हम मनुष्यों के लिए भी पेयजल के साथ जलक्रीड़ा के आनंद का भी साधन होती है ऐसी ही नदी हमारे लाभ के लिए है , शायद इसी कारण हमें उसमे सौंदर्य भी दिखता है। लेकिन क्या क्या हमने कभी सोचा की यह प्रवाह नहीं बल्कि नदी का सिर्फ निर्वाह है। ना कोई प्रतिरोध, न छोभ न कोई उल्लास न उमंग। वही गति वही मार्ग। यह तो निरंतरता की जड़ता है।
अल्हड़ जवानी भी होती है। जो मदमस्त हाथी जैसे अलसायी चाल से पहचानी जा सकती है जो राह गुजरते समय बगल की लताओं और फूलों पर अपने हांथ/सूंड को फेरने से बाज़ नहीं आता या कहें कि स्वयं को रोक ही नहीं पाता। प्रेमिका को सामने पा कर कब उसे बाँहों में भींच कर छाती तक उठाये हुए कई चक्कर यों ही काट देता है। समय के प्रवाह को थाम लेने वाली ये स्फूर्ति भी इस अल्हड़ जवानी में ही होती है। कभी कभी खयाल आता है की आइंस्टीन ने स्पेसिफिक थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी में जो यह बताया कि किसी वस्तु का वेग अत्यधिक होने पर समय शून्य हो जाता है, इसके पीछे अल्हड़ जवानी का उनका अपना अनुभव रहा होगा जिसने ऐसी परिकल्पना को जन्म दिया।
शब्दकोश में इसके कई अर्थ आपको समानार्थी के रूप
में मिल जायेंगे जैसे - मनमौजी, निर्द्वद्व,
बेपरवाह, किशोर और युवा की बीच की अवस्था का,
अप्रौढ़, बिना अनुभव का, जिसे व्यवहार ज्ञात न हो, उद्धत आदि।
इस शब्द की उत्पत्ति कैसे हुई होगी यह
भी बिचारणीय है
संभवतः यह संस्कृत के अल् और लल् के योग से बने शब्द 'अल्लल' से उत्पन्न हुआ होगा। संस्कृत के कोशकार अमरसिंह,
हलायुध, हेमचंद्र, आदि के अनुसार अल् (परस्मिपदा) अलति, श्रृंगार, सजाना, या सक्षम होना या योग्य होना बताया है। उसी प्रकार लल्
(आत्मनेपदी, सकर्मक)
का अर्थ- चाह, लालसा,
रति, रमण करना आदि बताया है। इस प्रकार अल्लल का अर्थ
सौंदर्य की इच्छा रखने वाला रहा होगा।
पांचवीं शताब्दी से दसवीं शताब्दी के
मध्य रहे अपभ्रंश भाषा काल में 'अल्लल' ही अल्हड़ बन गया होगा। लेकिन जब समाज ने
मनुष्य की सहज वृत्तियों को मर्यादा, लज्जा आदि से कुचलना शुरू किया तथा मनुष्य के चिंतन के केंद्र को सांसारिक जीवन, प्रेम, सौंदर्य , प्रकृति और उसका सौंदर्य से हटाकर ईश्वर के प्रति
प्रेम और समर्पण में ही आदर्श जीवन का प्रतिमान स्थापित कर दिया तो कामसूत्र के रचयिता
को महर्षि मानने वालों से लेकर साँची, अमरावती, अजंता, एलोरा से लेकर खजुराहो के भव्य मंदिर की
बाहरी दीवारों
पर यक्ष-यक्षिणी, अप्सरा,
किन्नर गन्धर्व देव -देवियों की रमणीय
और रति
मुद्राओं को चित्रित करने वाली समस्त परंपरा को कुचल दिया गया।
ऐसी परिस्थिति में अल्हड़ को भला क्यूँ बक्शा
जाता। सौंदर्य
की अनुभूति को जीने की कला बनाने वाले इस अल्लल को अल्हड़ ही नहीं बनाया बल्कि
उसे अनुभवहीन, उदंड और उपेच्छित भी बना दिया।
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